Jain dharm in hindi
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jain dharm ka itihas (Indian History)जैन धर्म का इतिहास NCRT पर आधारितईशा पूर्व छठी सदी के उत्तरार्द्ध में मध्य गंगा के मैदानों में अनेक धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ । इस युग के करीब 62 धार्मिक संप्रदाय ज्ञात है इनमें से कई संप्रदाय पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले विभिन्न समुदाय में प्रचलित धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठान विधियों पर आधारित थे । इनमें जैन संप्रदाय और बौद्ध संप्रदाय सबसे महत्त्व के थे, और यह दोनों धार्मिक सुधारों के परम शक्तिशाली आंदोलन के रूप में उभरे । उद्भव का कारण - ( Jain Dharm based on NCRT)वैदिकोत्तर काल में समाज स्पष्टत: चार वर्णों में विभाजित था - ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । हर वर्ण के कर्तव्य अलग-अलग निर्धारित थे, और इस पर जोर दिया जाता था कि वर्ण जन्म मूलक है उच्च वर्णों को विशेषाधिकार दिए गए । ब्राह्मण, जिन्हें पुरोहितों और शिक्षकों का कर्तव्य सौंपा गया था, समाज में अपना स्थान सबसे ऊंचा होने का दावा करते थे ।वे कई विशेष अधिकारों के दावेदार थे, जैसे दान लेना, करण से छुटकारा, दंडो की माफी आदि । उत्तर वैदिक ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहां ब्राह्मणों ने ऐसे अधिकारों का लाभ उठाया । वर्णक्रम में क्षत्रियों का स्थान दूसरा था । वे युद्ध करते थे, शासन करते थे और किसानों से उगाए गए करो पर जीते थे । वैश्य खेती, पशुपालन और व्यापार करते थे, और यही मुख्य करदाता थे । यद्यपि इन्हें दो उच्च वर्णों के साथ द्विज नामक समूह में स्थान मिला था । द्विज को जनऊ पहनने और वेद पढ़ने का अधिकार था, पर शूद्र को इससे वंचित रखा गया था । शुद्रों का कर्तव्य ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करना था, और स्त्रियों की भांति उन्हें भी वेद पढ़ने के अधिकार से अलग रखा गया था । वैदिकोत्तर काल में गृहदास, कृषिदास, शिल्पी और मजदूर के रूप में दिखाई देते हैं । यह स्वभाव से ही क्रूरकर्मा, लोभी और चोर कहे गए हैं, और कुछ अस्प्रश्य भी माने जाते थे । वर्णव्यवस्था में जो जितने ऊंचे वर्ण का होता था वह उतना ही शुद्ध और सुविधाधिकारी समझा जाता था । अपराधी जितने ही नीच वर्ण का होता उसके लिए सजा उतनी ही अधिक कठोर थी । यह स्वाभाविक ही था कि इस तरह के वर्ण विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा हो । वैश्य और शुद्र में इसकी कैसी प्रतिक्रिया थी यह जानने का कोई साधन नहीं है । परंतु क्षत्रिय लोग, जो शासक के रूप में काम करते थे, ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति करते थे और लगता है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था को जन्ममूलक मानने के विरुद्ध एक प्रकार का आंदोलन छोड़ दिया था । विविध विशेषधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नए धर्मों के उद्भव का अन्यतम कारण हुआ । जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध दोनों छत्रिय वंश के थे, और दोनों ने ब्राह्मणों की मान्यता को चुनौती दी । परंतु इन धर्मों के उद्भव का याथार्थ कारण है पूर्वोत्तर भारत में नई कृषि मूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार । पूर्वी उत्तर प्रदेश में और उत्तरी एवं दक्षिणी बिहार सहित पूर्वोत्तर भारत में वर्षा की दर लगभग 100 सेंटीमीटर है । जब तक भारी पैमाने पर बस्ती नहीं बनी थी, घने जंगल छाए हुए थे । ऐसे घने जंगलों को साफ करना लोहे की कुल्हाड़ी के बिना आसान नहीं था । यद्यपि क्षेत्र में 600 ईसवी पूर्व से पहले भी कुछ लोग बसते थे, पर उनके औजार हड्डी, पत्थर और तांबे के थे, और वे नदी के किनारों, झीलों के पास और संगम स्थलों में कष्ट से जीवन बिताते थे, क्योंकि वहां बाढ़ और कटाव के फलस्वरूप बसने लायक खाली जमीन मिलती थी । 600 ईसवी पूर्व के आसपास जब इधर लोहे का इस्तेमाल होने लगा, मध्य गंगा के मैदानों में लोग भारी संख्या में बसने लगे। इस क्षेत्र की मिट्टी में नमी अधिक है, अत: पूर्व काल के लोहे के बहुत से औजार तो बच नहीं सके, फिर वही कुछ कुल्हाड़ियाँ लगभ 600 से 500 ईसवी पूर्व के स्तर से निकली है । लोहे के औजारों के इस्तेमाल की बदौलत जंगलों की सफाई खेती और बड़ी-बड़ी बस्तियाँ संभव हुई । लोहे के फाल वाले हलों पर आधारित कृषि-मूलक अर्थव्यवस्था में बैल का इस्तेमाल जरूरी था, और पशुपालन के बिना बैल आए कहां से । परंतु इसके विपरीत वैदिक कर्मकांड के अनुसार यज्ञ में पशु अंधाधुंध मारे जाने लगे । यह खेती की प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ। असंख्य यज्ञों में बछड़ों और सांडों के लगातार मारे जाते रहने से पशुधन क्षीण होता गया । मगध के दक्षिणी और पूर्वी छोरो पर बसे काबायली लोग भी पशुओं को मार- मार कर खाते गए लेकिन यदि इस नई कृषि - मूलक अर्थव्यवस्था को चलाना था तो इस पशुवध को रोकना आवश्यक ही था । इस काल में पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों की स्थापना हुई, उदाहरण - कौशांबी ( प्रयाग के समीप), कुशीनगर ( जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश) , वाराणसी, वैशाली( इसी नाम का नवस्थापित जिला उत्तर बिहार) , चिराँव ( सारन जिला) और राजगीर ( पटना से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व) अन्याय नगरों के अतिरिक्त इन नगरों में बहुत - से शिल्पी और व्यापारी रहते थे, जिन्होंने सर्वप्रथम सिक्के चलाएं । सबसे पुराने सिक्के ईसा पूर्व पांचवी सदी के और वे पंचमार्क्ड या आहत सिक्के कहलाते हैं । आरंभ में उनका प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ । स्वभावतः को के प्रचलन से व्यापार- वाणिज्य बढ़ें और उससे वैश्यों का महत्व बढ़ा । ब्राह्मण - प्रधान समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि में था, प्रथम और द्वितीय कोटियों में क्रमश: ब्राह्मण और क्षत्रिय आते थे । स्वभावतः वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे जहां उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे । क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारतापूर्वक सहायता की । वणिकों ने जो शेट्ठी कहलाते थे, गौतम बुध और उनके शिष्यों को प्रचुर दान दिए । इसके कई कारण थे पहला यह किस जैन और बौद्ध धर्म की आरंभिक अवस्था में तत्कालीन वर्ण- व्यवस्था को कोई बात तो नहीं दिया गया । दूसरे, वे अहिंसा का उपदेश देते थे जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले युद्ध का अंत हो सकता था और उसके फलस्वरूप व्यापार- वाणिज्य में उनकी उन्नति हो सकती थी । तीसरे ब्राह्मणों कि कानून संबंधी पुस्तकों में, जो धर्मसूत्र कहलाती थी, सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था और सूद पर जीने वालों को अधम कहा जाता था । अत: जो वैश्य व्यापार- वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे वें आदर नहीं पाते थे और अपने सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उत्सुक थे । दूसरी ओर तरह-तरह की निजी संपत्ति के संचय के विरुद्ध भी कड़ी प्रतिक्रिया थी । पुराने विचार के लोग सिक्कों को, जो अवश्य ही चांदी और तांबे के होते थे, इस्तेमाल में लाना या जमा करना पसंद नहीं करते थे । वे लोग नए-नए ढंग के निवासों और परिधानों से, नई परिवहन प्रणालियों से परहेज करते थे, तथा युद्ध और हिंसा से घृणा करते थे । संपत्ति के नए-नए प्रकार से समाज में असमानता पनपी । इस असमानता के कारण लोगों का जीवन दुख -दर्द से भर गया था । इसलिए सामान्य लोग कामना करते थे कि आदिम जीवन लौट आए । वे फिर उस सन्यास के आदर्श की ओर लौटना चाहते थे जिसमें संपत्ति के नए-नए प्रकारों और जीवन की नई पद्धति के लिए जगह नहीं थी । बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल, शुद्द्ध और सयमिति जीवन के पक्षधर थे । बौद्ध और जैन दोनों भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलास की वस्तुओं का उपभोग ना करें । उन्हें सोना और चांदी छूना मना था । उन्हें अपने दाताओं से उतना ही ग्रहण करना था जितने से उनकी प्राण- रक्षा हो । इसलिए उन्होंने गंगा घाटी के नए जीवन में विकसित भौतिक सुख-सुविधाओं का विरोध किया । दूसरे शब्दों में ईसा पूर्व छठी- पांचवी सदी में मध्य गंगा के मैदान में हम भौतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के विरुद्ध उसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखते हैं जैसी प्रतिक्रिया आधुनिक काल में औद्योगिक क्रांति से आए परिवर्तनों के विरुद्ध देख रहे हैं । औद्योगिक क्रांति जिस प्रकार बहुत लोगों के मन में यंत्र- पूर्व युग के जीवन में लौट जाने की चाह जगाई है उसी प्रकार अतीत के लोग भी लौह - युग के पूर्व की जिंदगी में लौट जाना चाहते थे । वर्धमान महावीर और जैन संप्रदायजैन धर्मावलम्बियों का विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर के पहले 23वें आचार्य हुए है जो तीर्थकर कहलाते थे। यदि महावीर को अंतिम या 24 वे तीर्थंकर माने तो जैन धर्म का उद्भव काल ईशा पूर्व नवी सदी ठहरता है । परंतु आरंभ के अधिकतर तीर्थकर तक, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उत्पन्न में बताए गए, इसलिए उनकी ऐतिहासिकता नितांत संदिग्ध है । मध्य गंगा के मैदान का कोई भी भाग ईसा पूर्व छठी सदी से पहले ठीक से आवाज नहीं हुआ था । स्पष्ट है कि इन तीर्थकरो की जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निवाड़ प्राप्त किया, मिथक कथा जैन संप्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए ली गई है । जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतों की उपदेष्टा 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जो वाराणसी के निवासी थे । विराज सुख को छोड़ सन्यासी हो गए किंतु यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की । महान सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध का ठीक- ठीक समय निश्चित करना कठिन है । परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली के पास किसी गांव में हुआ । वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में बसाढ़ से की गई है । उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कुल के प्रधान थे । उनकी माता का नाम त्रिशला था जो बिम्बीसार के ससुर लच्छवि -नरेश चेतक की बहन थी । इस प्रकार महावीर के परिवार का संबंध मगध के राजपरिवार से था । उच्च कुलों से संबंध रखने के कारण अपने धर्म- प्रसार के क्रम में उन्हें राजाओं और राज्य सचिवों के साथ संपर्क करना आसान हुआ । आरंभ में महावीर ग्रहस्थ जीवन में थे, किंतु सत्य की खोज में वे 30 वर्ष की अवस्था में संसारी की जीवन का परित्याग करके सन्यासी (यति) हो गए । 12 वर्षों तक वे जहां-तहां भटकते रहे । वे एक गांव में 1 दिन से अधिक और एक शहर में 5 दिन से अधिक नहीं टिकते थे । कहां जाता है कि वह अपनी 12 साल की लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले किंतु जब 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम ही त्याग कर दिया । कैवल्य द्वारा उन्होने सुख- दुख पर विजय प्राप्त की । इसे विजय के कारण वे महावीर अर्थात महान शूर, या जिन अर्थात विजेता कहलाए और उनके अनुयाई जैन कहलाए हैं । कोसल, मगध, मिथिला, चंपा आदि प्रदेशों में घूम घूम कर वे अपने धर्म का प्रचार 30 वर्षों तक करते रहे । उनका निर्वाण 468 ईसवी पूर्व में 72 साल की उम्र में राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ । दूसरी परंपरा के अनुसार उनका देहांत 527 ईसवी पूर्व में हुआ । परंतु पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर उन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में नहीं रखा जा सकता है । जिन नगरों और वासस्थानों से उनका संबंध था उनका उदय 500 ईसवी पूर्व तक नहीं हुआ था । जैन धर्म का सिद्धांतजैन धर्म के पांच व्रत है -
कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से चले आ रहे थे, महावीर ने केवल पांचवा व्रत जोड़ा । जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को ना सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है । कभी-कभी इस व्रत के विचित्र परिणाम दिखाई देते हैं, जैसे कुछ जैन धर्मावलंबी राजा पशु की हत्या करने वालों को फांसी पर चढ़ा देते थे । महावीर के पूर्व तीर्थकर पार्श्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, पर महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दे दिया । इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे । इसके चलते बाद में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया - (1) श्वेताम्बर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगंबर अर्थात नग्न रहने वाले । जैन धर्म मे देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है पर उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। |
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